bhagat singh story
भगत सिंह
भगत सिंह
(जन्मजात शहीद)
23 march, 1931 की शाम थी। लाहौर के केंद्रीय जेल में मातमी खामोशी छाई हुई थी। सभी सरकारी और पुलिस अधिकारी सावधानीपूर्वक फांसी के तख्त के पास खड़े थे। आज यहां तीन लोगों को फांसी पर लटकाया जाना था। इस क्रूर माहौल में तीन नौजवानों को लाया गया। इन्हें देख कर ऐसा लगता था कि ये फांसी पर लटकने को उतावले हो रहे हों। ये नौजवान थे- भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव
ठीक 7.30 बजे जेल की डरा देने वाली घंटी बजी और तीनों युवक देशभक्ति के गीत गाते हुए फांसी घर की ओर चल पड़े। तभी अचानक भगत सिंह अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर के पास खड़े हो गए और बोले- "मजिस्ट्रेट साहब, आप बड़े भाग्यशाली हैं। आप इस बात के गवाह बनने जा रहे हैं कि भारतीय क्रांतिकारी मौत से नहीं डरते। इंकलाब जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद।" फांसी का फंदा तीनों क्रांतिकारियों नें खुद हि गले में पहन लिये और तब जल्लाद ने तीनों के चेहरे को ढक दिया। जेलर के रूमाल हिला कर इशारा करते ही जल्लाद ने तख्त को खींच दिया। बस कुछ ही सेकेंडों में सब कुछ खत्म हो चुका था और रह गई थीं तीन शहीदों की लाशें। भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गांव (अब पाकिस्तान में) में एक सिख परिवार सरदार किशन सिंह संधू और विद्यावती के घर हुआ था। संयोगवश, इसी दिन भगत सिंह के पिता और उनके दो चाचा जेल से रिहा हुए थे। भगत सिंह की दादी को लगा कि यह बच्चा बड़ा ही भाग्यशाली है, क्योंकि इसके आते ही उनके तीनों बेटे जेल से रिहा हो गए। इसलिए उन्होंने बालक का नाम भागोंवाला (भाग्यशाली) रखा। लेकिन बाद में भागोंवाला, भगत सिंह के नाम से जाना जाने लगा। आज भी हम उन्हें इसी नाम से जानते हैं।
भगत सिंह के एक चाचा स्वर्ण सिंह को एक बार अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया। जेल में वह बीमार पड़ गए और उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ता गया। बाद में उन्हें जेल से रिहा कर दिया। गया, लेकिन उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ और आखिरकार उनकी मौत हो गई। भगत सिंह के दूसरे चाचा जेल से छूटने के बाद देश छोड़ कर चले गए। भगत सिंह की चाचियां अपने पतियों की याद में रोया करती थीं। इसे देख बालक भगत सिंह कहा करते थे-“चाची आप रोइए मत मैं जब बड़ा हो जाऊंगा तो अंग्रेजों को देश से खदेड़ दूंगा और अपने चाचा को वापस बुला लाऊंगा। मैं अंग्रेजों से तब तक लडूंगा जब तक कि अपने चाचा को कष्ट देने वालों को समाप्त नहीं कर देता।" छोटे से बच्चे की इन बहादुरी भरी बातों को सुनकर रोती हुई चाचियाँ अपना दुख भूल जाती थीं।
भगत सिंह जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे तो एक दिन उन्होंने अपने साथ पढ़ने वालों से पूछा- "तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो? सभी बच्चों ने अलग-अलग उत्तर दिया। किसी ने कहा वह डाक्टर बनना चाहता है तो किसी ने सरकारी अधिकारी तो किसी ने व्यापारी बनने की इच्छा जताई। लेकिन भगत सिंह ने कहा वह बड़े होकर भारत से अंग्रेजों को भगा देंगे।" देशभक्ति का खून भगत सिंह की नसों में बचपन से ही दौड़ता था।
भगत सिंह सिर्फ 12 वर्ष के थे जब अमृतसर में जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ। यहां एक सभा में इकट्ठे हुए सैकड़ों लोगों पर जनरल डायर ने फायरिंग का आदेश दे दिया। अंग्रेज सिपाही देर तक निर्दोष लोगों पर गोलियां बरसाते रहे। वहां से बच निकलने का कोई रास्ता नहीं था। इस गोलीबारी में सैकड़ों लोग जिनमें महिलाएं और बच्चे भी थे, मारे गए और हजारों लोग घायल हो गए। बालक भगत सिंह के दिमाग पर इस घटना का गहरा असर पड़ा। अगले दिन वह स्कूल से घर नहीं लौटे। वह सीधे जलियांवाला बाग पहुंचे। भगत सिंह ने निर्दोष देशवासियों के खून से सनी मिट्टी एक बोतल में भर ली। घर लौट कर उन्होंने उस मिट्टी को हाथ में ले फिरंगियों से बदला लेने की कसम खाई।
भगत सिंह की शुरुआती पढ़ाई बंगा के प्राइमरी स्कूल में हुई। आगे की पढ़ाई करने के लिए वह लाहौर चले गए। भगत सिंह का बचपन उनके पिता और चाचा के पराक्रम का गवाह था। गदर आंदोलन ने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। शहीद करतार सिंह सराभा उनके आदर्श बन चुके थे। इससे देश की आजादी के लिए लड़ने के उनके इरादे और मजबूत हुए।
1923 में पंजाब हिंदी सम्मेलन में भगत सिंह ने एक निबंध प्रतियोगिता जीती। इससे पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन के महासचिव प्रोफेसर भीम सेन विद्यालंकार सहित सभी सदस्य काफी प्रभावित हुए। इतनी कम उम्र से ही भगत सिंह पंजाब के साहित्यिक कार्यों में रुचि लेने लगे तथा राज्य की समस्याओं पर बहस करते थे। किशोरावस्था में ही भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन उनका मन किताबों में नहीं लगता था। पढ़ने के बजाए उन्होंने क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में जानकारियां इकट्ठी करनी शुरू कीं। क्रांति के बारे में जानकारियां बढ़ने के साथ ही इसमें शामिल होने की भगत सिंह की इच्छा और बढ़ती चली गई। उन्होंने रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ बंगाल से संपर्क साधना शुरू किया, जो उस समय क्रांति का मुख्य केंद्र था। इसके नेता सचींद्र नाथ सान्याल थे। पार्टी की सदस्यता के लिए यह शर्त होती थी कि नेता द्वारा क्रांति से जुड़े कार्यों के लिए याद किए जाने पर उसे घर छोड़ने के लिए तैयार रहना होगा।
भगत सिंह की दादी की इच्छा थी कि अब उनकी शादी हो जानी चाहिए। उनके लिए उन्होंने लड़की भी देख ली थी। लेकिन शादी तय होने के दिन ही भगत सिंह घर छोड़ कर चले गए। जाते-जाते घर वालों के लिए वह खत छोड़ गए थे, जिसमें लिखा था- “मेरी जिंदगी का लक्ष्य देश
की आजादी के लिए लड़ना है। मैं भौतिक सुख-सुविधाओं में नहीं पड़ना चाहता। मेरे उपनयन (हिन्दू धर्म में दीक्षा संस्कार समारोह) के मौके पर मेरे चाचा ने मुझसे एक पवित्र वचन लिया था. कि- आज मैं आपसे वादा करता हूं कि मैं अपने आप को देश के लिए बलिदान कर दूंगा ।"
बाद में भगत सिंह कानपुर आ गए। यहां खर्चा चलाने के लिए वे अखबार बेचते थे। यहीं उन्हें प्रसिद्ध क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में पता चला। विद्यार्थी का अखबार 'प्रताप' उस समय देश में आजादी के आंदोलन की आवाज माना जाता था। उन्होंने भगत सिंह को अपने प्रेस में नौकरी पर रख लिया। धीरे-धीरे भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह के संपर्क में आए और वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए। बाद में इस संगठन को समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष रूप देने के लिए भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद तथा अन्य सदस्यों ने इसका नाम बदल कर हिंदुस्तान सोशियलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया। 1926 में भगत सिंह, सुखदेव, भगवती चरण वोहरा और अन्य साथियों ने समाजवादी विचारधारा के प्रचार, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सीधी कार्रवाई की जरूरत को समझने और पार्टी में युवकों को सामिल करने के लिए नौजवान भारत सभा का गठन किया गया।
1920 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो भगत सिंह ने सिर्फ 13 साल की उम्र में ही इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। उन्हें पूरी आशा थी कि गांधी जी एक दिन जरूर भारत को आजादी दिलाएंगे। 1922 में गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में एक जुलूस का आयोजन किया गया था। इस दौरान आंदोलनकारियों ने पुलिस की बर्बरता का जवाब देने के लिए 22 पुलिसकर्मियों को एक थाने में बंद कर आग लगा दी। सभी पुलिसकर्मी आग में जलकर राख हो गए। इससे पहले कुछ इसी प्रकार की हिंसक घटनाएं मुम्बई और मद्रास में हो चुकी थीं।
महात्मा गांधी इन घटनाओं से बहुत दुखी हुए, क्योंकि वह अहिंसा के समर्थक थे और बिना किसी मार-काट के आजादी पाना चाहते थे, जबकि क्रांतिकारी हिंसा के रास्ते स्वतंत्रता हासिल करना चाहते थे। गांधी जी ने दुखी होकर देश भर में चल रहे असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। भगत सिंह इससे बहुत निराश हुए। उनका मानना था कि सिर्फ 22 पुलिस वालों के मारे जाने के कारण आंदोलन वापस लेना अन्यायपूर्ण था। उन्होंने कहा कि इन अहिंसा के समर्थकों ने उस समय क्यों विरोध नहीं जताया जब अंग्रेज सरकार ने सिर्फ 19 साल के क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा को बेदर्दी से फांसी पर लटका दिया था। अहिंसा का यह तरीका भगत सिंह के समझ में बिल्कुल नहीं आया। इसके चलते भगत सिंह का विश्वास अहिंसा और असहयोग आंदोलन से उठ गया। उन्होंने तय कर लिया कि आजादी सिर्फ सशस्त्र आंदोलन से ही हासिल की जा सकती है।
भगत सिंह ने बाद में कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंजल्स और व्लादीमिर लेनिन के विचारों का गहरा अध्ययन किया। उनका मानना था कि विभिन्न समुदायों में बंटी भारत की विशाल जनसंख्या का भला सिर्फ समाजवादी शासन में ही संभव है। उन्होंने आयरलैंड, इटली और रूस के क्रांतिकारियों की जीवनी का गहराई से अध्ययन किया। अध्ययन करने के साथ ही उनका यह विश्वास और पुख्ता होता गया कि युद्ध ही आजादी पाने का एकमात्र रास्ता है। उन्होंने महसूस किया कि इसके लिए देश के नौजवानों में क्रांति की भावना जगाना जरूरी है जिससे प्रतेक नौजवान के सीने में आजादी की आग धधक सके।
इस बीच भगत सिंह की गतिविधियां पुलिस की नजर में आ चुकी थीं। पुलिस के जासूस हर वक्त उन पर निगाह रखते थे। एक बार जैसे ही वह अमृतसर में ट्रेन पर सवार हुए, जासूस उनके पीछे लग गए। जासूस की निगाहों से किसी तरह बचते-बचाते वह लाहौर पहुंचे। ट्रेन के लाहौर पहुंचते ही पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और लाहौर फोर्ट जेल भेज दिया। भगत सिंह की समझ में नहीं आया कि क्यों उन्हें गिरफ्तार किया गया। दरअसल, कुछ दिन पहले दशहरा समारोह के दौरान निकली शोभायात्रा पर किसी ने बम फेंक दिया, जिसमें कई लोगों की मौत हो गई। पुलिस को संदेह था कि बम फेंकने वाले क्रांतिकारियों के साथ भगत सिंह भी शामिल थे। लाहौर जेल में भगत सिंह को बार-बार यातनाएं दी गईं। यहां तक कि उन्हें पीटा भी गया। इसी बीच काकोरी • कांड की जांच कर रहे अधिकारी भी भगत सिंह से मिले और घटना के संबंध में पूछताछ की। हालांकि उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा। आखिरकार भगत सिंह पर दोष साबित नहीं किया जा सका और उन्हें छोड़ दिया गया। रिहाई के बाद खाली चारपाई पर बढ़े हुए बालों में ली गई भगत सिंह की तस्वीर जेल में उन पर हुए जुल्मों की गवाही दे रही थी। देश में क्रांतिकारियों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी। बम बनाने की जानकारी हासिल करने के लिए भगत सिंह कलकत्ता चले गए। वहां उन्होंने अपनी जरूरत के लिए बम खरीदे। बम बनाने की तरीका उन्होंने एक क्रांतिकारी युवक जतींद्र नाथ दास से सीखी।
1928 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया। इसे साइमन कमीशन के नाम से जाना गया। भारत की राजनीतिक पार्टियों ने इसका जमकर विरोध किया क्योंकि इसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। 30 अक्टूबर, 1928 को साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा। वहां लाला लाजपत राय की अगुवाई में इसका जोरदार विरोध हुआ। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज कर दिया। लाठी लाजपत राय को भी लगी जिससे वह बुरी तरह घायल हो गए। कुछ दिनों बाद लाला जी की मृत्यु हो गई। लाठी चार्ज का आदेश देने वाले पुलिस अधीक्षक जे. ए.स्कॉट से भगत सिंह बदला लेना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एक योजना बनाई। उन्होंने कई • दिनों तक पुलिस स्टेशन का मुआयना किया। अब योजना को अमल में लाने की बारी थी। 17दिसंबर, 1928 को भगत सिंह और राजगुरु पुलिस स्टेशन के गेट से कुछ ही दूरी पर छुपकर खड़े हो गए। जयगोपाल गेट के नजदीक अपनी साइकिल लिए कुछ इस तरह खड़ा था कि लगे कि वह • साइकिल की चेन ठीक कर रहा है। जयगोपाल का संकेत मिलते ही भगत सिंह और राजगुरु को अपने काम को अंजाम देना था। योजना के अनुसार चंद्रशेखर आजाद भी बगल के डीएवी कॉलेज की चारदीवारी के पास अपनी पिस्तौल लिए खड़े थे। अपना काम करने के बाद भगत और राजगुरु को हॉस्टल की तरफ से निकलना था और आजाद को दोनों की बच निकलने में मदद करनी थी।
कुछ ही देर में पुलिस उपाधीक्षक जे. पी. सांडर्स बाहर आया। तभी जयगोपाल का संकेत पाकर राजगुरु ने एकदम उस पर गोली चला दी। भगत सिंह ने भी सांडर्स पर तीन फायर किए और दोनों हॉस्टल की दीवार फांद कर भाग गए। एक हेड-कांस्टेबल ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की, लेकिन वह आजाद के हाथों मारा गया। क्रांतिकारी पुलिस अधीक्षक जे. ए. स्कॉट को मारना चाहते थे, लेकिन जयगोपाल ने गलती से सांडर्स को स्कॉट समझकर इशारा कर दिया। हालांकि बाद में यह खुलासा हुआ कि लाला जी सांडर्स की लाठी से ही घायल हुए थे। सांडर्स की हत्या के बाद लाहौर में सुरक्षा बढ़ा दी गई। भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी बनवा दी और अमेरिकन के वेश में अंग्रेजों को चकमा देकर ट्रेन से लाहौर से बच निकले। इसमें मदद की दुर्गा भाभी ने, जो उनकी मेम साहब बनी थीं और राजगुरु नौकर |
1927 – 28 में अंग्रेज सरकार देश में चल रहे मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए लेबर बिल लाना चाहती थी विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम जनता भी बिल का विरोध कर रही थी। भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंक कर और पर्चे बांट कर इस बिल का विरोध करने का निश्चय किया। 29 अप्रैल, 1929 को जब हाउस की कार्यवाही चल रही थी, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंका बम फटते ही सेंट्रल असेंबली में भगदड़ मच गई। कुछ ही मिनटों में पूरा हाउस खाली हो चुका था। हाउस स्पीकर अपनी कुर्सी के नीचे छिप गए थे। केवल तीन लोग अपनी कुर्सी पर विराजमान थे-मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय और मोहम्मद अली जिन्ना। तीनों सदस्य अपनी सीट पर बुत बने खड़े थे। इसके अलावा दर्शक दीर्घा में खड़े दो नौजवान इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे और पर्चे फेंक रहे थे। हालांकि दोनों नौजवान आसानी से भाग सकते थे, लेकिन वे वहीं खड़े होकर नारे लगाते रहे।
इस घटना में न तो कोई मारा गया था न ही कोई घायल हुआ था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दावा किया कि उन्होंने बम किसी को मारने के लिए नहीं फेंका था। उनके दावे की इस बात से भी पुष्टि हुई कि घटना की जांच करने वाले ब्रिटिश विशेषज्ञों ने भी पाया कि बम इतना शक्तिशाली नहीं था कि उससे कोई घायल भी हो सके। सच्चाई तो यह थी कि बम लोगों से दूर खाली स्थान पर फेंका गया था। बम फेंकने के बाद भगत और दत्त ने खुद ही अपने को गिरफ्तार करवा दिया। 12 जून, 1929 को दोनों नौजवानों को लोगों की जान लेने का प्रयास करने का दोषी ठहराया गया।
उनकी गिरफ्तारी और केस की सुनवाई के कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजों को इनके जे पी सांडर्स की हत्या में शामिल होने के बारे में पता चल गया। भगत, राजगुरु और सुखदेव पर हत्या का आरोप भी लगा दिया गया। इसे देखते हुए भगत सिंह को लगा कि यह अपने विचारों को जन जन तक पहुंचाने और लोगों में आजादी की भावना जगाने का अच्छा मौका हो सकता है। उन्होंने हत्या में शामिल होने का आरोप स्वीकार कर लिया और सुनवाई के दौरान अंग्रेजों की करतूतों का जमकर पर्दाफाश किया।
जेल में भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर कैदियों के अधिकारों के लिए भूख हड़ताल शुरू कर दी। उन दिनों जेल में बंद अंग्रेज कैदियों को भारतीय कैदियों से बेहतर भोजन और अन्य सुविधाएं दी जाती थीं। भगत सिंह की मांग थी कि सभी के साथ एक समान व्यवहार किया जाए। यह हड़ताल 115 दिनों तक चली। आखिरकार ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और भगत सिंह की सारी मांगें मान ली गईं। इससे उनकी लोकप्रियता और बढ़ गई।
सुनवाई के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 7 अक्टूबर, 1930 को फांसी की सजा सुनाई गई। भगत सिंह के पिता ने एक दया याचिका दायर की। भगत सिंह को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने अपने पिताजी को लिखा- "पिताजी, आपने अपना सारा जीवन देश की आजादी के लिए न्यौछावर कर दिया, लेकिन आज मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि इस महत्वपूर्ण घड़ी में आप इतने कमजोर कैसे हो रहे हैं। मेरा जिंदा रहना मूल्यों और सिद्धांतों से बढ़कर नहीं है। यहां जो कुछ होगा हम सभी साथियों के साथ होगा। हम सभी साथ खड़े हैं। हमें इस बात की परवाह नहीं है कि इस संयुक्त अभियान के लिए क्या कीमत अदा करनी पड़ेगी।
3 मार्च, 1931 को भगत सिंह के परिवार वाले उनसे मिलने जेल में आए। यह उनकी आखिरी मुलाकात थी। सभी लोग दुखी थे, लेकिन भगत सिंह के चेहरे पर जरा भी शिकन थी। वह सब से मुस्कुरा कर मिले।
उन्होंने अपनी मां से कहा- "मेरे मरने के बाद आप मेरी लाश के पास मत आइएगा क्योंकि आप अपने आंसू रोक नहीं पाएंगी और लोग कहेंगे कि एक शहीद की मां रो रही है।" इतना कह कर वह जोर-जोर से हंसने लगे। यह देखकर उनके सभी साथी और जेल अधिकारी आश्चर्यचकित थे ।
23 मार्च, 1931 को भगत सिंह लेनिन की आत्मकथा पढ़ रहे थे तभी एक अधिकारी आया और बोला- सरदार जी, आपकी फांसी का समय हो गया है। भगत सिंह ने जवाब दिया- "रुको, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। थोड़ी देर बाद ही उन्होंने कहा-“अब मैं तैयार हूं।"
ठीक 7:33 बजे उन्होंने भारत मां की बलि बेदी पर अपने आप को न्यौछावर कर दिया।
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