Charkhi Ka Beta: Moral Story | Part 3
चरखी का बेटा भाग-3
बड़ी सुबह धूप की सुनहरी किरणें जब माँद में घुसीं तो चरखी की आँखें खुल गईं। देखा, उनका बेटा अब भी उसी तरह गोद में दुबका पड़ा है। उसे याद हो आया चतुरी का भोला बचपन, जब वह उसे एक पल को न
छोड़ता था और बिल्कुल ऐसे ही चिपक कर सोता था । वह उठी, माँद की सफाई की, फिर सोते हुए चतुरी का प्यार लिया और सुबह का शिकार करने निकल गई।
काफी दिन चढ़ने पर जब चतुरी उठे तो माँ के बिना माँद उदास लगने लगी । मन बटाने के लिए वे बाहर आ एक नई प्रतिज्ञा रटने लग गए । प्रण किया, 'अब चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए, किसी शिकार की बातों में न आकर अविलम्ब उस पर हाथ साफ कर दिया करेंगे।' प्रतिज्ञा कंठस्थ कर वे आखेट को निकल पड़े ।
शिकार की टोह में चलते-चलते उन्हें ध्यान हो आया कि कल माँ झील पर से बतख पकड़ कर ले गई थी, तो क्यों न किसी ताल पर ही चल कर आजमाया जाए। इन्हीं सब विचारों में खोए, वे एक ताल पर जा पहुँचे। लेकिन वह तो करीब-करीब सूख चुका था और हर जगह कीचड़ ही कीचड़ हो रहा था अब ऐसे ताल में बतख और बगुला क्या, उनका एक पर भी मिलना मुश्किल था
वैसे ईश्वर जब देता है तो छप्पर अपने आप फट जाता है। वहीं कीचड़ में एक बड़ा सा मेंढक, अब तक न जाने कैसे दुश्मनों की दृष्टि बचाए,
पड़ा था। संभवतः, वह रात की प्रतीक्षा कर रहा था सोचा होगा, दिन में तनिक सा हिलने पर भी पकड़े जाने का भय है, अंधेरा होते ही, कूदता- फाँदता, कुछ ही दूरी पर स्थित बड़े वाले ताल में भाग लूंगा ।
बड़े वाले ताल का पानी कभी नहीं सूखता और तमाम मेंढक अंधेरा होते ही “भागते आओ, भागते आओ" की आवाज़ से बिरादरों को बुलाया करते हैं
अब चतुरी के भाग्य को यदि अच्छा कहें तो मेंढक के नक्षत्र अवश्य गड़बड़ थे । ताल पर पहुँचते ही चतुरी की श्रृगाल दृष्टि सबसे पहले उसी से जा टकराई। उनकी खुशी का तो ठिकाना न रहा ।
लेकिन अफसोस यह कि मेंढक ने भी उन्हें पहली ही नज़र में पहचान लिया । चतुरी दबे पाँव, पैतरा बदलते, नाक चढ़ा और आँखों में क्रोध झलकाते, उसकी ओर बढ़ने लगे। वे पूरी तरह दहशत का वातावरण बना देना चाहते थे, लेकिन मेंढक इत्मीनान से बैठा उन्हें घूरे जा रहा था। वे जैसे ही उसके निकट पहुँचे और चाहा कि एक झटके से मुँह में दबोच लें, तभी मेंढक बड़ी ज़ोर से टर्रा उठा, “खबरदार
! मुझे मुँह भी न लगाना, अभी टें हों जाओगे !"
“मुझे मूर्ख न बनाओ, आज मैं किसी के झाँसे में आने वाला नहीं, और न मैं वह हूँ जो तुम मुझे भूल सें समझ रहे हो, “चतुरी नाक चढ़ाते बोले, “मैंने आज पक्की प्रतिज्ञा कर रखी है, किसी को छोडूंगा नहीं।” चतुरी आज अपनी पूरी बुद्धि का प्रयोग करने पर तुल गए थे। आज ही तो एक शिकार फंसा था जो कहीं भाग भी नहीं सकता था, न उड़ सकता था।
"तो क्या आज आत्महत्या करने निकले हो?" मेंढक ने कुछ डाँटते हुए पूछा ।
"तुम दादुर कहना क्या चाहते हो?" चतुरी ने पुनः दृढ़ता दिखाते प्रश्न किया। उन्हें एक मेंढक का इस तरह एक बड़े सियार को झिड़कते तनिक भी अच्छा नहीं लगा। उसे फिर से आगाह करते बोले, “मैं पुनः सावधान किए देता हूँ, मैं वह बिल्कुल नहीं हूँ जो तुम मुझे भूल से समझे जा रहे हो।"
“तेरी भलाई के लिए कह रहा था, मूर्ख सियार । मुझे कोई आवश्यकता यह जानने की नहीं कि तू कौन है और कौन नहीं,” मेंढक फिर डाँट लगाते हुए बोला ।
"तो फिर मेरी भलाई - बुराई से तुम्हारा क्या लेना-देना?" कहते-कहते चतुरी, गुस्से से दाँत निकालते, उसके सिर पर ही जाकर खड़े हो गए।
" अरे बेवकूफ, अभी-अभी एक काले ज़हरीले साँप ने मुझे करीब-करीब पूरा निगल लिया था", मेंढक भयातुर हो बताने लगा, “लेकिन उसी समय अपने से भी बड़ा एक दूसरा साँप अपनी ओर लपकते देख,
वह तो मुझे उगल सरपट भाग गया", मेंढक अपने बदन का हरा चिपचिपा रंग दिखाते कहने लगा, "लेकिन देख लो, उसका विष मेरे शरीर पर किस तरह लग गया है !"
“ठीक है, मैं तुम्हें धोकर खा लूँगा," चतुरी इस समय चतुराई के शिखर पर आ गए थे।
“यही तो मैं तुझसे इतनी देर से कह रहा था, बिना धोए मुझे मुहँ मत लगा, नहीं तो यहीं ढेर हो जाएगा, लेकिन तेरी बुद्धि में कुछ आए तब न!" मेंढक अब भी गोल-गोल टप्पेदार आँखों से चतुरी को झिड़के जा रहा था, फिर कुछ ठंडा पड़ते बोला, “सुन, मुझे धोने के लिए तुझे थोड़ा परिश्रम करना पड़ेगा। पहले मुझे बड़े ताल तक ले चल ।
ताल यहाँ से कुछ दूर तो अवश्य है लेकिन मेरा स्वादिष्ट और मुलायम माँस भी तो तुझी को खाने को मिलेगा ! "
चतुरी को मेंढक बड़ा स्पष्टवादी लगा। उसने दो टूक शब्दों में अपनी बात उनके सम्मुख रख दी थी। वे उसकी स्पष्टवादिता पर प्रसन्न हो सोचने लगे, “थोड़ा शठ तो अवश्य है, लेकिन है समझदार!” बोले, " लेकिन मैं तुम्हें मुँह से पकड़ तो सकता नहीं फिर ताल तक ले कैसे जाऊँगा?" चतुरी को समस्या बड़ी गंभीर लगी ।
“निरर्थक बातें मत कर ! जा, भागकर एक बड़ा सा पत्ता ले आ, मैं उसी पर बैठ जाऊँगा और तू पत्ते को खींच ले चलना,” मेंढक ने नाक चढ़ाते निर्देश दिया।
चतुरी को मेंढक की अशिष्टता बड़ी बुरी लग रही थी, लेकिन वे भूल से भी कोई ऐसी बात नहीं करना चाह रहे थे कि हाथ आया शिकार निकल जाये। मेंढक के मुलायम माँस को याद कर-कर उनके मुँह में वैसे भी पानी आ रहा था। आज तक उन्हें मेंढक खाने को कभी नहीं मिला था, बस उसके स्वादिष्ट माँस की तारीफ ही सुनी थी।
बिचारे मरते क्या न करते, गए भाग कर एक बड़ा सा केले का पत्ता अपने तेज़ दाँतों से काट लाए । मेंढक उस पर उछलकर बैठ गया और वे पत्ते को, मुँह से पकड़, खींचते हुए बड़े ताल की ओर चल पड़े । रास्ते भर मेंढक, नाक चढ़ा चढ़ा, ऊलूल-जलूल बातें बकता रहा, लेकिन उस समय सब सहना उनकी नियति थी ।
अभी वे कुछ ही दूर गये होंगे कि गर्दन दर्द करने लगी। सोचा थोड़ा सुस्ता लें, तभी मेंढक बिगड़ उठा, “बड़ा मरियल सियार निकला तू तो ! ऐसे ही मरा-मरा खींचता रहा तो सारा दिन रास्ते में ही निकाल देगा। यह भी सुन ले, मैं कूदने-फाँदने वाला जानवर हूँ, मुझे यह बोरे जैसा खींचा जाना बिल्कुल पसंद नहीं!” टर्राकर बोला, “और तुझे यह भी बता दूँ, तूने मुझे दिन में पकड़ा है इस कारण दिन में ही खा सकता है। अगर रात हो गई तो दुसरे दिन की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, मैं दूसरे दिन ही नहाऊँगा।”
मेंढक की डाँट सुनते ही चतुरी फिर उसे जल्दी-जल्दी खींचने लगे। वे जानते थे कि अभी यह भागने लगे तो वे कुछ कर नहीं सकते। उसके शरीर में तो चारों और विष लगा था और उस दुष्ट को तो पंजे से छूना भी खतरनाक था। पाजी भी इतना कि ब्लैकमेलिंग के सब गुर जानता था ।
कुटिल मेंढक अकेले जाता तो रास्ते में उसे चील, बाज और अन्य तमाम जानवरों का भय था । यहाँ तो वह मजे से "स्लेज" पर बैठा सफर कर रहा था और एक सियार उसकी रक्षा भी करता चल रहा था ।
हाँफते-हाँफते चतुरी किसी तरह उस बेताल को लेकर ताल पर पहुँच ही गए। किनारे पर पहुँचते ही मेंढक आदेश देते बोला, “ए सियार, जा भागकर देख पानी किधर साफ है। गंदे पानी में नहाने की मेरी आदत नहीं ।”
चतुरी को मेंढक की अभद्रता अब असह्य हो उठी। उसकी तू-तकार सुनते-सुनते उनके कान पक चुके थे। उनके धैर्य का बाँध टूट ही गया, कड़ककर बोले, “बस ! बन्द कर अब अपनी यह टर्र-टर्र ! बहुत हो चुका! तेरे पिता ने मुझे नौकर नहीं रख छोड़ा है? जा, जाकर स्वयं देख पानी कहाँ साफ, कहाँ गंदा है!” “तू तो बड़ा धूर्त सियार है ! मेंढक को खाना चाहता है, लेकिन उसका कहना नहीं मानेगा?" मेंढक भी टर्रा गया।
“हाँ-हाँ, नहीं मानूँगा, सौ बार नहीं मानूँगा, तू क्या कर सकता है मेरा?" कहते-कहते चतुरी क्रोध से काँपने लगे ।
"तो फिर मुझे किसी दुष्ट का आहार बनना भी स्वीकार्य नहीं,” कहकर मेंढक ताल में कूद गया । कुछ देर तक तो चतुरी क्रोध से ताल की ओर देखते रहे। लेकिन जब होश आया तब आभास हुआ कि मेंढक तो उन्हें मूर्ख बना भाग लिया था
बिचारे दुखी हो सोचने लगे, “उसे जाना था तो जाता, मुझे डाँट क्यों रहा था!"
The fourth part will
come very soon.
Thank you bye bye
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