मुझे वह थप्पड़ आज तक याद है | mujhe vaha thappad aaj tak yad hai
मुझे वह थप्पड़ आज तक याद है
मुझे वह थप्पड़ आज तक याद है
बात तब की है जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था ।
हम चार-पांच दोस्त साइकिल चलाना सीख रहे थे ।
हम एक घण्टे के लिए किराए की साइकिले लेते और शहर से बाहर किसी खुली सड़क पर साइकिल चलाने का अभ्यास करते। मुझे साइकिल चलाना तो आ गया, बस उस पर चढ़ना और उतरना नहीं आया। इसके लिए मैं साइकिल को किसी बड़े पत्थर, चबूतरे या आटले के पास खड़ा करके उस पर बैठ जाता और उतरने के लिए भी ऐसा ही कोई सहारा ढूंढ़ता। फिर भी कितनी बार मैं गिरा होऊंगा और कितनी बार साइकिल, इसका कोई हिसाब नहीं था।
एक दिन हम चार-पांच दोस्त साइकिलें लेकर नवाबाद के लिए निकले। यह शहर के बाहर एक निर्जन इलाका था। रास्ते में एक ओवरब्रिज आता था । इससे थोड़ा पहले से ही हम साइकिलें जोर से भगाना शुरू कर देते ताकि आराम से ऊपर तक पहुंच जाएं । एक तरह की होड़ लग जाती कि कौन पहले ऊपर चढ़ता है। फिर ढलान पर तो आराम ही अराम था । न पैडल मारने थे, न जोर लगाना था। आराम से ठण्डी हवा खाते हुए और गला खोलकर गाते हुए उतर जाओ ।
पगड़ी वाले आदमी ने गिरने से बचने के लिए दोनों हाथों से मेरी साइकिल का हैण्डल पकड़ लिया। अब वह एक तरह से मेरे मडगार्ड पर बैठा था। दोनों तरफ उसके पैर लटक रहे थे । उसका बड़ा-सा मूंछोवाला चेहरा और पगड़ी ठीक मेरी आखो के सामने थी। मुझे सड़क दिखाई देना बन्द हो गई थी और साइकिल थी कि जोर से भागी जा रही थी।
आदमी गुस्से में तमतमाते हुए चीखा, 'रोक !'
लेकिन मैं रोकता कैसे ? दोनों ब्रेक पूरे दबा रखे थे और साइकिल की रफ्तार फिर भी तेज होती जा रही थी। आदमी ने गर्दन घुमाकर कर एक नजर सड़क को देखने की कोशिश की। गर्दन पीछे तो क्या मुड़ती, उसे आजू-बाजू की भागती सड़क ही दिखाई दी होगी। वह कूदने की सोच भी रहा हो तो यह देखकर उसने इरादा छोड़ दिया होगा ।
उसे और गुस्सा आ गया। वह चिल्लाया, 'रोक !'
अब मैं उसे कैसे बताता कि मैं रोक नहीं सकता। मेरी हालत तो और भी खराब थी। सामने उसकी पगड़ी और मूंछों के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। साइकिल में घण्टी भी नहीं थी। साइकिल उसे और मुझे लिए - लिए जैसे कुएं में गिर रही थी। किसी भी समय हम सामने से आती किसी गाड़ी से टकरा सकते थे। दिल जोर से धड़क रहा था। रुलाई फूट पड़ने को थी। और वह था कि रोक! रोक! किए जा रहा था ।
जैसे-तैसे ओवरब्रिज की वह ढलान सही सलामत खत्म हुई। साइकिल के अगले मडगार्ड पर टंगे उस बेबस आदमी ने दोनों तरफ की सड़क पर अपनी जूतियां घिसटना शुरू किया। कोई पचास कदम दूर जाकर साइकिल रुकी।
जैसे ही उसने हैण्डल छोड़ा और एक टांग उठाकर खुद को इस मनहूस साइकिल से आजाद किया, मैं साइकिल समेत धड़ाम से गिरा। आदमी मुझे उठाने की बजाय अपनी पगड़ी ठीक करने लगा। जैसे ही मैं उठकर खड़ा हुआ वह मेरे पास आया और मेरे गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। बोला कुछ नहीं। बस थप्पड़ मारा और बड़बड़ाता हुआ चला गया।
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