सप्पू बन गया चाचा नेहरू | story

सप्पू बन गया चाचा नेहरू




सप्पू बन गया चाचा नेहरू

एक बार हमारे शहर में नेहरूजी आए। जिस-जिस सड़क से नेहरूजी का काफिला गुजरना था, सड़क के दोनों तरफ आदमी, औरतें, बच्चे उनकी झलक पाने के लिए सटे-सटे खड़े थे और जिस मैदान मे नेहरूजी का भाषण होने वाला था वह तो खचाखच भरा हुआ था मैं भी बड़े मामाजी के साथ नेहरूजी का भाषण सुनने गया

नेहरूजी क्या बोले यह तो मुझे पूरी तरह समझ में नहीं आया, लेकिन उनका भाषण देने का ढंग मुझे बड़ा अच्छा लगा। उनके कुछ जुमले मुझे सुनते-सुनते ही याद हो गए और कुछ शब्द तो जैसे दिमाग में अटक ही गए। जैसे एक शब्द था- गोया। 'गोया हमें आजादी मिली।' 'गोया हमें मिहनत (मेहनत नहीं) करनी है।' 'गोया हमें देश को आगे बढ़ाना है।' यह गोया शब्द मुझे बड़ा अच्छा लगा। नेहरूजी के मुंह से तो और भी अच्छा लगा। अब इस 'गोया' का मतलब क्या होता है, यह मुझे आज तक नहीं पता।

 हम लोग एक बहुत बड़े मकान में रहते थे। मकान एक बाड़े में था। उसमें कुल पैंतीस परिवार

 रहते थे। बीच में सबके लिए एक बड़ा-सा साझा आंगन था। दूसरे दिन इस आंगन में खडत्र मैं

 चार-पांच दोस्तों को नेहरूजी के भाषण के बारें में बता रहा था। साथ ही उनके भाषण की नकल कर

 रहा था। उन्हें मजा आया वे बोले, 'एक बार और बता ' फिर बोले, ' इसने, गट्टू ने नहीं सुना,

 एक बार और बता ' धीरे-धीरे दस-पन्द्रह बच्चे इकट्ठा हो गए। मैं उन्हें नेहरूजी के भाषण की

 नकल उतारकर बताता रहा।

 

आंगन में एक बड़ी-सी टंकी थी। दोस्तों ने कहा, 'इस पर चढ़कर बोल मजा आएगा।' उन्होंने मुझे टंकी पर चढ़ा दिया। मैं और जोश से भाषण की नकल उतारने लगा। भाषण खत्म होने पर सबने बत्तीसी दिखाई और तालियां बजाईं। बजाईं क्या, उनसे बज गईं। इस बीच पन्द्रह-बीस छोटे-बड़े बच्चे और इकट्ठा हो गए थे और बहुत से खिड़कियों - गैलरियों से भी झांक रहे थे। फिर

 

सुनाने की फरमाइश पर मैंने नेहरूजी जैसा मुंह बनाकर, हाथ पीछे बांधकर, अभिनय के साथ भाषण दोहराया जोरदार तालियां बजीं। अब तक कुछ बड़े लोग भी गए थे। जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती गई मेरे भाषण में अभिनय की मात्रा भी बढ़ने लगी। और 'गोया' का प्रयोग भी बढ़ने लगा।

 

बच्चों को लगा कि जब हमें हमारा नेहरूजी मिल ही गया है, तो क्यों इसकी सवारी निकाली जाए और इसे सम्मानपूर्वक अपने आंगन में लाया जाए। मुझे टंकी से उतारा गया। सब गली में गए। दो बच्चों ने मोटरसाइकिल का हैण्डल पकड़ने की मुद्रा में हाथ ताने और मुंह से दुर्रर्र......... की आवाज निकालते हुए आगे-आगे दौड़े। चार मेरे आजू-बाजू जीप के पहिए बनकर दौड़े, और दो मोटरसाइकिल वाले गार्ड पीछे। सबके बीच में मैं दौड़ा। यह काफिला गली के चार चक्कर लगाकर गेट पर आया। मैं भी कोई कम नहीं था। सबके बीच दौड़ते हुए मैं दोनों तरफ हाथ हिला हिलाकर मुसकराता हुआ जनता का अभिवादन करता रहा। जनता नहीं थी। लेकिन उसे होना चाहिए था।

 

अब मैं बच्चों, आदमियों, औरतों से खचाखच भरे आंगन के बीचों-बीच टंकी पर खड़ा खूब अभिनय के साथ नेहरूजी के भाषण की नकल उतार रहा था हाथ पीछे बांधे... कभी थोड़ा बाएं घूमता... कभी थोड़ा दाएं... | गोया... गोया कि हमें आजादी मिली... फिर माइक पकड़ता... 'गोया कि हमें मिहनत ( मेहनत नहीं) करनी है...' फिर थोड़ा सिर खुजाता और टोपी ठीक करने का अभिनय करता ... गोया गोया गोया कि हमें देश को, मुल्क को आगे ले जाना है।' 'गोया... तरक्की करना है... '

 

तालियों पर तालियां पिट रही थीं। दूर के पड़ोसियों को बच्चे दौड़-दौड़कर खबर कर रहे थे जल्दी आओ... राजा की आई... जल्दी चलो... आंगन में वैज्जी का सप्पू नेहरूजी के भाषण की खूब मस्त नकल कर रहा है और आइयां, बाइयां, ताइयां, काकू, आजोबा सब के सब काम छोड़-छोड़कर रहे थे और बार-बार मुझसे भाषण दिलवाया जा रहा था। तालियां पीटी जा रही थीं और हर भाषण से पहले हमारा मोटरसाइकिल का कारवां गली के चक्कर लगाकर रहा था

 

जिस समय आंगन में यह चल रहा था, वहां के सबसे सम्पन्न व्यक्ति कुटुम्बले वकील अपने कमरे में बैठे किसी मुकदमे की तैयारी कर रहे थे इतने में उनका लड़का अशोक ठुनकता हुआ उनके कमरे में पहुंचा और बोला, “काका मुझे नेहरूजी बनना है। मुझे अब्बी के अब्बी नेहरूजी बनना है।"

 

कुटुम्बले वकील ने उसे पहले तो घूरा, फिर डांटा, “लप्पड़ खाना है क्या? होमवर्क तो होता नहीं अपना, नेहरूजी बनेंगे साले

 

अशोक बोला, "वैज्जी का सप्पू बन सकता है तो मैं क्यों नहीं बन सकता ?”

 

काका जी बोले, “तो बन जा मना किसने किया?" अशोक बोला, "लेकिन मैं भाषण कैसे दूंगा ?”

 

काका बोले, “क्यों? जैसे वो दे रहा है तू भी दे देना वो कैसे दे रहा है ?”

अशोक बोला, “वो तो गोया... गोया कर रहा है काका बोले, “तो तू भी गोया गोया कर दे। नहीं तो मोया मोया कर दे कुछ भी कर दे " अशोक ठुनकते हुए बोला, “नहीं, तुम मेरे को भाषण लिखकर दो। अब्बी के अब्बी जब बहुत समझाने पर भी अशोक नहीं माना तो काका ने उसे एक कागज पर आठ-दस लाइन का भाषण लिखकर दे दिया।

 कुछ देर बाद दृश्य यह था कि स्टूल के सहारे टंकी पर खड़ा अशोक - जो पता नहीं क्यों काला चश्मा भी लगा आया था दोनों हाथ से कागज पकड़े नेहरूजी का भाषण पढ़ रहा था भाषण में - विकास, योजना और भविष्य जैसे बड़े-बड़े शब्द रहे थे, लेकिन इस अमीर नेहरूजी का भाषण सुनने के लिए आंगन में एक भी आदमी नहीं था

 

अगले दिन बड़े मामाजी ने मेरे पिताजी को चिट्ठी लिखी, “आपका लड़का आज नेहरूजी बना

 

था। काफी ठीक-ठाक रहा " पता नहीं पिताजी क्या समझे होंगे !

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